January 22, 2010

एक सत्य


         सुबह आती है, तो मैं सुबह को स्वीकार कर लेता हूँ और साँझ आती है, तो सांझ को. प्रकाश का भी आनंद है और अंधकार का भी. जब से यह जाना है, तब से दुःख नहीं जाना है.
         किसी आश्रम से एक साधू बहार गया था. लौटा तो उसे ज्ञात हुआ की उसका एकमात्र पुत्र मर गया है और उसकी शवयात्रा अभी राह में ही होगी. वह दुःख में पागल हो गया. उसे खबर क्यों नहीं की गयी? वह आवेश में अँधा दौड़ा हुआ शमशान की ओर चला.  शव मार्ग में ही था. उनके गुरु शव के पास ही चल रहे थे. उसने दौड़ कर उन्हें पकड़ लिया. दुःख में वह मूर्छित सा हो गया. फिर अपने गुरु से उसने प्रार्थना की : "दो शब्द सान्तवना के कहें. मैं पागल हुआ जा रहा हूँ." गुरु ने कहा "शब्द क्यों, सत्य ही जानो. उससे बड़ी कोई सान्तवना नहीं." और उन्होंने शवे पेटिका के ढक्कन को खोला और उससे कहा: " देखो - 'जो है', उसे देखो ". उसने देखा. उसके आंसूं थम गए. सामने मृत देह थी. वह देखता रहा और एक अंतर्दृष्टि का उसके भीतर जनम हो गया. जो है - है, उसमे रोना हँसना क्या? जीवन एक सत्य है, तो मृत्यु भी एक सत्य है. जो है - है. उससे अन्यथा चाहने से ही दुःख पैदा होता है.
         एक समय मैं बहुत बीमार था. चिकित्सक भैभीत थे और प्रियजनों की आँखों में विषाद छा गया था. और मुझे बहुत हंसी आ रही थी, मैं मृत्यु को जानने को उत्सुक था. मृत्यु तो नहीं आई, लेकिन एक सत्य अनुभव में आ गया. जिसे भी हम स्वीकार कर लें, वही हमे पीड़ा पहुँचाने में असमर्थ हो जाता है.

ओशो



No comments:

Post a Comment

Thanks for your message :)