August 21, 2018

लाखों बूंदे ...

बारिश हो रही है
बूँदें बरस रही है
लाखों बूंदे हैं काँच की इस खिड़की पर

कौन है इन्हे बना रहा
कौन है इन्हे मिटा रहा
एक पल से भी कम है, इनका जीवन
फिर भी लाखों बूँदें है काँच की इस खिड़की पर

कोई तो है
जो बस है
ले रहा मज़ा
इस खेल का

जिसने है ये खेल रचाया
जिसने है इन बूँदों को बनाया
वही तो है
मज़ा भी ले रहा
अपनी रचाई इस दुनिया का

पर क्या वो नही है
हर ईक इस बूँद में?

पर क्या वो नही है
गिरती बारिश की आवाज़ में ?

क्या वो नही है
हर ईक आती जाती साँस में ?

वो एक ही है बस
मैं वो ही तो हूँ

अलग होने के ब्रह्म का ही, तो है ये खेल
जिसे रचाया उसने
खुद से ही मिलने को
पैदा होने, मरने के
बनने, मिट जाने के
इस द्वंद में छिपे, अद्वैत के प्रत्यक्ष होने को

लाखों बूंदे हैं काँच की इस खिड़की पर
बनती, मिट जाती
लाखों बूंदे हैं काँच की इस खिड़की पर

- तनु श्री

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