May 3, 2017

आँखें खुली हैं

आँखें खुली हैं
पर जो है, वो नही है दिख रहा
आँखे खुली हैं
पर देखने वाला अपने ही सपनो में, विचारों में, है खोया खोया
"आज तो लेट हुए
आज ऑफीस में बॉस को क्या कहँगे
कल उसने ऐसा क्यों कहाँ था
उसका ज़रूर कुछ मतलब होगा
उसके पास कितना अच्छा मोबाइल है
मुझे भी है लेना एक ऐसा"


अलग अलग रंग रूप हैं
अलग अलग पहनावा
आँखें पर सबकी एक सी
एक सी ही दुख की, तकलीफ़ की भाषा
एक सी ही खुशी की, प्रेम की भाषा

आखें खुली हैं
पर जो है वो नही है दिख रहा

कोई पूछता है परमात्मा है तो साबित करो
कोई ये क्यों नही पूछता
की अपनी आखें कैसे सॉफ करें
की शायद हूमे ही ना हो दिखता वो
ऐसा प्रशण जो है पूछता
परमात्मा की तरफ कदम है बढ़ा लेता
संसार में रहते हुए भी
सन्यासी है कहलाता

जो है यहीं है
अपनी आखों के पीछे पड़ी धूल को हटाना
विचारों की, सपनो की भीड़ से निकल
जहाँ है वहीं अपना ध्यान है ले आना
एक ऐसी स्थिरता को जानना
जहाँ ना हो एक भी विचार
जहाँ ना हो धूल का एक भी कण
ऐसी असीम शांति को उपलब्ध हो चुकी
आँखों को है दिखता
जो है, जैसा है
ऐसी आखों को है दिखता
सत्य प्रेम और परमात्मा

जो है यहीं है
स्वयं भी
प्रेम भी
परमात्मा भी
बस आँखे अंदर से खुलने की बात है


2 comments:

Thanks for your message :)